व्यंग्य

‘व्यंग्य’ हिंदी गद्य साहित्य की वह विधा है जिसमें समाज की विसंगतियों, पाखंडों और मिथ्याचारों का पर्दाफाश किया जाता है। इसका वास्तविक उद्देश्य समाज की बुराइयों, कामजोरियों को हास्यात्मक तरीके से पेश करना है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार-“व्यंग्य वह विधा है जहाँ कहने वाला अधरोष्ठ में हँस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठे और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने आपको और उपहासास्पद बना लेना हो जाता है।”

श्रीलाल शुक्ल के अनुसार-“व्यंग्य सुशिक्षित मस्तिष्क की विधा है।”
हरिशंकर परसाई के अनुसार-“व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है।”
डॉ. सुबोध कुमार श्रीवास्तव के अनुसार-“व्यंग्य वह है जो पाठक के बहिरंग को तो हँसने के लिए बाध्य कर देता है किंतु उसका अंतरंग उसी की हँसी को स्वीकार नहीं कर पाता, और एक अनकही चुभन महसूस करता है।”
शार्टर आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार-“व्यंग्य का अर्थ है लेखन या संभाषण में कटाक्ष वक्रोक्ति, उपहास आदि के प्रयोग द्वारा दोष, मूर्खता, अनाचार अथवा अन्य किसी भी प्रकार की बुराई करना, कलई खोलना या मजाक उड़ाना। अर्थात समाज की बुराइयों के सुधार के उद्देश्य से वक्रोक्ति के माध्यम से नींद करना ही व्यंग्य है।”
इस प्रकार कहा जा सकता है कि आक्रोश, हास्य, सामाजिक उद्देश्य व्यंग्य के मूल तत्व हैं। इसमें यथार्थता होती है। यह जीवन के वास्तविक विसंगतियों का दर्पण होता है।
एक विधा के रूप में व्यंग्य का प्रारंभ स्वातंत्र्योत्तर काल में हुआ, किंतु इसका अस्तित्व हिंदी साहित्य के आदिकाल से ही परिलक्षित होने लगता है। आदिकाल में सिद्ध और नाथ साहित्य में तत्कालीन पाखण्ड को उभारने में व्यंग्य का स्पष्ट संकेत दिखते हैं। भक्तिकाल में कबीर, सूर और तुलसीदास के काव्य में व्यंग्य का पुट उपलब्ध है। रीतिकाल में बिहारी और केशव के काव्य में व्यंग्य के अनेक उदाहरण मिलते हैं।
भारतेंदु युग में भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, , प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी और राधाचरण गोस्वामी श्रेष्ठ व्यंग्यकार थे। इन्होंने व्यंग्य के माध्यम सामाजिक विसंगतियों और अंग्रेजों के कारनामों को उजागर किया।
द्विवेदी युग में बालमुकुंद गुप्त ने ‘शिवशम्भू के चिट्ठे’, ‘चिट्ठे और खत’ निबंध संग्रह में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार पर व्यंग्य किए हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उत्कृष्ट व्यंग्य रचे। नाथूराम शर्मा शंकर ने ‘गर्भरंडा रहस्य’ नाम से व्यंग्य कविता रची। इस युग के सरदार पूर्ण सिंह, पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी तथा बाबू गुलाबराय के साहित्य में व्यंग्य परिलक्षित होता है।
स्वातंत्र्योत्तर काल में हजारी प्रसाद द्विवेदी, नागार्जुन, प्रभाकर माचवे, भारतभूषण अग्रवाल तथा रामविलास शर्मा ने व्यंग्य की परंपरा को आगे बढ़ाया। इस विधा को शिखर पर पहुँचाने का श्रेय हरिशंकर परसाई, शरद जोशी एवं रवींद्रनाथ त्यागी को है।

आधार ग्रंथ-

  1. हिंदी साहित्य ज्ञानकोश, भाग-6

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