वर्णमाला
आधुनिक भाषा-विज्ञान में भाषा को ऐसी बौद्धिक क्षमता के रूप में परिभाषित किया जाता है जो ध्वनि-प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है। भाषा के इन्हीं पारंपरिक ध्वनि-प्रतीकों को वर्ण कहते हैं।
हिंदी भाषा में ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग भाषा की ध्वनियों और उन ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त लिपि-चिह्नों दोनों के लिए होता है।
वर्ण भाषा के उच्चरित और लिखित दोनों रूपों के प्रतीक हैं और यह ही भाषा की लघुत्तम इकाई हैं।
वर्ण का दूसरा नाम अक्षर है। अक्षर शब्द का अर्थ ही होता है-जिसका क्षरण न हो, अनाशवान। अतः वर्ण अखण्ड मूल ध्वनि का नाम है। ‘वर्ण’ किसी शब्द का वह खण्ड है जिसे खण्ड-खण्ड नहीं किया जा सकता, जिसका विभाजन नहीं किया जा सकता। प्रत्येक वर्ण की ध्वनि अपना एक विशेष आकार रखती है। इसी आकार को वर्ण कहते हैं।
प्रत्येक भाषा में कई वर्ण होते हैं। हिन्दी भाषा में 52 वर्ण माने जाते हैं-
- स्वर-11((अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ)
- अयोगवाह-02 (अं, अः)
- व्यंजन-33 ((क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य, र, ल, व, श, ष, स, ह) संयुक्त व्यंजन-04 (क्ष, त्र, ज्ञ, श्र)
- उत्क्षिप्त व्यंजन-02 (ड़, ढ़)
कुल वर्ण-52
हिन्दी के वर्ण देवनागरी लिपि में लिखे जाते हैं। हिंदी के अतिरिक्त संस्कृत, नेपाली और मराठी भाषा भी देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं।
वर्णमाला
हिन्दी भाषा के लेखन के लिए जो चिह्न (वर्ण) प्रयुक्त होते हैं, उनके व्यवस्थित समूह को वर्णमाला कहते हैं।
वर्णों के भेद
उच्चारण की दृष्टि से हिन्दी वर्णमाला के वर्णों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है-
- स्वर
- व्यंजन
स्वर
जिन ध्वनियों के उच्चारण के समय वायु मुख से बिना किसी रुकावट के निकलती है, वे स्वर कहलाते हैं। वे वर्ण जिनके उच्चारण के लिए किसी दूसरे वर्ण की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, स्वर कहलाते हैं।
- स्वर ग्यारह माने जाते हैं-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ। इनके अतिरिक्त एक आगत स्वर ‘ऑ’ अंग्रेजी वर्ण व्यवस्था से लिया गया है।
- सभी स्वर घोष ध्वनियाँ हैं।
- ’अ’ की अपनी कोई मात्रा नहीं होती क्योंकि यह व्यंजन में अंतर्निहित रहता है।
- ‘ऋ’ स्वर का प्रयोग केवल संस्कृत के शब्दों में ही होता है। उदाहरण- ऋण, ऋषि, ऋतु, घृत आदि।
- ‘ऋ’ का उच्चारण प्रायः उत्तर भारत में ‘रि’ की तरह होता है।
- कहीं-कहीं (महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत में) इसका उच्चारण ’रु’ जैसे होता है।
- अं और अः यद्यपि स्वरों में गिने जाते हैं परन्तु उच्चारण की दृष्टि से ये व्यंजन के ही रूप हैं। स्वर के बाद ही इनका उच्चारण संभव होता है।
अं-अनुस्वार तथा अः-विसर्ग
- अं तथा अः दोनों की मात्राएं सदैव स्वर के बाद लगती हैं। इसलिए इन्हें स्वरों में नहीं गिना जाता है। इन्हें ‘अयोगवाह’ कहा जाता है।
- अनुस्वार जिस स्पर्श व्यंजन से पहले आता है उसी व्यंजन के वर्ग के अंतिम नासिक्य वर्ण के रूप में उच्चरित होता है; जैसे-गंगा तथा पंकज में ड़ ( गड़्गा, पड़्कज)।
- अंतस्थ (य, र, ल, व) और ऊष्म (श, ष, स, ह) के पहले आने पर अनुस्वार का उच्चारण पंचम वर्णों में से किसी भी एक वर्ण की भाँति हो सकता है। उदाहरण संशय, संरचना और संलाप में ’न’ संवाद में ‘म्’।
- शब्द के अंत में स्वर रहित म् की तरह; जैसे-स्वयं।
- विसर्ग का प्रयोग तत्सम शब्दों में ही होता है और उसका उच्चारण ‘ह्’ की तरह होता है; जैसे प्रातः।
- अनुस्वार-स्वर के बाद उच्चरित होने वाला एक अनुनासिक वर्ण (ङ, ञ, ण, न, म)।
- अनुनासिक-जिसका उच्चारण मुँह और नाक से हो; जैसे-आँख, दाँत।
व्यंजन
जिन वर्णों के उच्चारण में वायु रुकावट के साथ या घर्षण के साथ मुँह से बाहर निकलती है, उन्हें व्यंजन कहते हैं।
व्यंजनों का वर्गीकरण
व्यंजनों को दो आधार पर वर्गीकृत किया जाता है-
- उच्चारण स्थान के आधार पर
- उच्चारण प्रयत्न के आधार पर
उच्चारण स्थान के आधार पर
व्यंजनों के उच्चारण के समय हमारी जिह्वा मुख के विभिन्न स्थानों कंठ, तालु, दन्त आदि को छूती है जिसके परिणामस्वरूप तरह-तरह की व्यंजन ध्वनियाँ उत्पन्न होती है।
- कंठ्य :-अकुहविसर्जनीयानाम् कण्ठः, अर्थात् अ, आ, क वर्ग, ह और विसर्ग का उच्चारण स्थान कण्ठ है।
- तालव्य :-इचुयाशानाम् तालु। अर्थात् इ, ई, च वर्ग, य और श का उच्चारण स्थान तालु है।
- मूर्धन्य :-ऋटुरषाणाम् मूर्धा। अर्थात् ऋ, ट वर्ग, र, और ष का उच्चारण स्थान मूर्धा है।
- दन्त्य :-लृतुलसानाम् दन्तः। अर्थात् लृ, त वर्ग, ल, और स का स्थान दन्त है।
- ओष्ठ्य :-उपूपध्यमानीयानामेष्ठौ। अर्थात् उ, प वर्ग और उपध्यमानीय का स्थान ओष्ठ है।
- नासिक्य :-ञमङणनानाम् नासिका च। अर्थात् ञ, म, ङ, ण और न का उच्चारण स्थान नासिका है।
- दन्तोष्ठ्य :-वकारस्य दन्तोष्ठ्य। अर्थात् व का उच्चारण स्थान दन्त और ओष्ठ्य है।
- एदैतो कण्ठ तालु :-अर्थात् ए तथा ऐ का उच्चारण स्थान कण्ठ और तालु है।
- ओदौतो कण्ठोष्ठम् :-ओ और औ का उच्चारण स्थान कण्ठ और ओष्ठ है।
उच्चारण प्रयत्न के आधार पर
व्यंजनों के उच्चारण के समय श्वास की मात्रा, स्वरतंत्री का अवरोध तथा जीभ और अन्य अवयवों द्वारा अवरोध को प्रयत्न कहते हैं।
उच्चारण प्रयत्न तीन प्रकार के होते हैं-
- स्वरतंत्री में श्वास कम्पन के आधार पर
- श्वास की मात्रा के आधार पर
- जीभ तथा अन्य अवयवों द्वारा श्वास अवरोध के आधार पर
स्वरतंत्री में श्वास कम्पन के आधार पर
बोलते समय वायु प्रवाह से कण्ठ में स्थित स्वरतंत्री में कम्पन होता है। स्वरतंत्री में जब कम्पन होता है तो सघोष ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं और जब कम्पन नहीं होता है तब अघोष ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं।
सघोष :-सभी स्वर, वर्गों के तृतीय, चतुर्थ और पंचम व्यंजन, ड़, ढ़, अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ह।
अघोष :-वर्गों के प्रथम, द्वितीय व्यंजन तथा श, स, ष।
श्वास की मात्रा के आधार पर
श्वास (प्राण) की मात्रा के आधार पर व्यंजनों को दो भागों में विभाजित किया गया है-
- अल्पप्राण
- महाप्राण
अल्पप्राण
जिन ध्वनियों के उच्चारण में मुख से कम वायु निकलती है उन्हें अल्पप्राण व्यंजन कहते हैं; जैसे-वर्गों के प्रथम, तृतीय तथा पंचम व्यंजन, ड़ और अन्तःस्थ (य, र, ल, व)।महाप्राण
जिन ध्वनियों के उच्चारण में मुख से निकलने वाली श्वास की मात्रा अधिक होती है उन्हें महाप्राण व्यंजन कहते हैं; जैसे-वर्गों के द्वितीय, चतुर्थ व्यंजन, ढ़ और ऊष्म (श, स, ष, ह)।
जीभ तथा अन्य अवयवों द्वारा श्वास अवरोध के आधार पर
स्पर्श व्यंजन
जब हम व्यंजनों का उच्चारण करते हैं तो उच्चारण अवयव मुख विवर में किसी स्थान विशेष का स्पर्श करते है, ऐसे व्यंजनों को स्पर्श व्यंजन कहते हैं; जैसे-क वर्ग से प वर्ग तक।
संघर्षी व्यंजन
जिन व्यंजनों का उच्चारण करते हुए वायु स्थान-विशेष पर घर्षण करते हुए निकलती है तो इन व्यंजनों को संघर्षी व्यंजन कहते हैं; जैसे-ज़, फ़, अन्तःस्थ (य, र, ल, व) उत्क्षिप्त व्यंजन (ड़, ढ़)।
अन्तःस्थ व्यंजन
जिन व्यंजनों के उच्चारण में श्वास का अवरोध कम होता है उन्हें अन्तःस्थ व्यंजन कहते हैं; जैसे-य, र, ल, और व।
उत्क्षिप्त व्यंजन
जिनके उच्चारण के समय जीभ पहले ऊपर उठकर मूर्धा का स्पर्श करती है और फिर एकदम नीचे गिरती है, वे उत्क्षिप्त व्यंजन कहलाते हैं; जैसे—ड़, ढ़।
अर्ध स्वर
’य’ और ’व’ को अर्ध स्वर भी कहते हैं।
लुंठित व्यंजन
जिन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा को दो से तीन बार कंपन करना पड़ता है, उसे लुंठित या प्रकंपी व्यंजन कहते हैं। हिन्दी में केवल ’र’ लुंठित व्यंजन है।
पार्श्विक व्यंजन
जिन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा तालु को स्पर्श करे किन्तु पार्श्व अर्थात् बगल से वायु निकल जाए, उसे पार्श्विक व्यंजन कहते हैं। हिन्दी में केवल ’ल’ पार्श्विक व्यंजन है।
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