अलंकार
‘अलंकार’ शब्द ‘अलम्’ शब्द के साथ ‘कृ’ ( करना ) धातु से बना है।
अलम् शब्द के तीन अर्थ हैं।
1. सजाना
2. रोकना
3. पर्याप्त होने का भाव
अर्थात् जिससे काव्य में सौन्दर्य उत्पन्न होता है, वह अलंकार है। वह सौन्दर्य इस प्रकार का हो कि कहना पड़े कि बस, बस! इससे अधिक क्या कहा जा सकता है। अलंकार से साहित्य में सम्पूर्णता आती है।
- अलंकार का शाब्दिक अर्थ है-सजावट, शृंगार, आभूषण, ‘सुशोभित करने वाला’ आदि।
अलंकार-सम्प्रदाय की परम्परा
- भारतीय काव्य-सम्प्रदायों में रस सम्प्रदाय के बाद दूसरा महत्वपूर्ण सम्प्रदाय अलंकार सम्प्रदाय माना जाता है।
- भरतमुनि ने अपने ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ में चार अलंकारों- उपमा, रूपक, दीपक और यमक का विवेचन किया है किन्तु उन्होंने इन्हें अधिक महत्व नहीं दिया।
- भामह ने अलंकारों को काव्य की आत्मा मानकर अलंकार सम्प्रदाय की स्थापना की।
- अलंकार सम्प्रदाय के प्रमुख प्रवर्तक भामह हैं। भामह ने ही सर्वप्रथम अलंकार का महत्व प्रतिपादित किया।
- भामह ने ‘काव्यालंकार’ नामक ग्रंथ की रचना की। इनका समय छठी शताब्दी माना जाता है।
- भामह ने वक्रोक्ति को ही समस्त अलंकारों का मूल मानते हुए इनकी संख्या 38 बतायी।
- भामह के पश्चात् दण्डी ने ‘काव्यादर्श’ लिखकर अलंकार सम्प्रदाय की परम्परा को आगे बढ़ाया तथा अलंकारों की संख्या 35 तक ही सीमित रखी।
- अलंकार सम्प्रदाय के प्रमुख प्रवर्तक भामह हैं। भामह ने ही सर्वप्रथम अलंकार का महत्व प्रतिपादित किया।
अलंकार की परिभाषा
- भामह के अनुसार-‘‘कविता के सौन्दर्य के लिए अलंकार आवश्यक हैं।’’
- ‘‘अलंकरोति इति अलंकारः’’ अर्थात् जो अलंकृत करे, उसे अलंकार कहते हैं।
- भामह के इस सिद्धांत की पुष्टि उद्भट ने की। उद्भट के पश्चात् दण्डी, रुद्रट और प्रतिहारेन्दु आदि विद्वानों ने उनका अनुसरण किया।
- दण्डी का भी मत था कि ‘‘काव्य शोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते’’
अर्थात् काव्य का पोषण करने वाले अंगों को अलंकार कहना चाहिए।
- वामन के अनुसार-‘‘काव्यं ग्राह्मलंकारात् सौन्दर्यमलंकारः’’ अर्थात् काव्य अलंकार के द्वारा ही ग्रहण करने योग्य हैं तथा सौन्दर्य अलंकार है।
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार-‘‘कथन की रोचक, सुन्दर और प्रवाहपूर्ण प्रणाली अलंकार है।’’
- आचार्य केशव के अनुसार-
‘‘यद्यपि सुजाति सुलच्छनी, सुवरनसरस सुवृत्त।
भूषण बिनु न विराजई, कविता वनिता मित्त’’
अर्थात् हे मित्र! कविता यद्यपि सुजाति (उच्चकोटि की), सुलच्छनी (अच्छे लक्षणों वाली), सुवरन सरस (अच्छे रसीले अक्षरों से युक्त), और सुवृत्त (अच्छे छन्दों वाली) हो, तो भी बिना भूषण (अलंकार), के अच्छी नहीं लगती। इसी तरह से स्त्री भी सुजाति (अच्छे वंश की), सुलच्छनी (अच्छे लक्षणों वाली), सुवरन सरस (अच्छे रंग की या गौर वर्ण तथा रसीली), और सुवृत्त (अच्छा बोलने वाली) हो, तो भी बिना भूषण या गहनों के अच्छी नहीं लगती।
- अन्य परिभाषाएं-जिस प्रकार किसी स्त्री की शोभा आभूषणों से बढ़ जाती है, उसी प्रकार अलंकारों से काव्य की सुन्दरता बढ़ जाती है।
अलंकार के भेद
अलंकार के मुख्य दो भेद हैं-1. शब्दालंकार 2. अर्थालंकार,
- शब्दालंकार :-जहाँ शब्दों के कारण कविता में सौन्दर्य या चमत्कार उत्पन्न होता है वहाँ शब्दालंकार होता है।
- यदि इन शब्दों के स्थान पर उनके ही अर्थ का या कोई पर्यायवाची शब्द रख दिया जाए तो वह सौन्दर्य या चमत्कार समाप्त हो जाता है; जैसे-
1. तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए
2. रघुपति राघव राजा राम, पतित के पावन सीताराम
- अर्थालंकार-जहाँ काव्य में अर्थगत चमत्कार उत्पन्न होता है वहाँ अर्थालंकार होता है; जैसे पीपर पात सरिस मन डोला।
- विशेष-जहाँ शब्द और अर्थ दोनो के कारण काव्य में सौन्दर्य या चमत्कार उत्पन्न हो वहाँ ‘उभयालंकार’ होता है।