आत्मकथा
आत्मकथा का शाब्दिक अर्थ है-अपनी कथा या कहानी। इसके लिए अंग्रेजी में ‘आटोबायोग्राफी’ (Autobiography) शब्द प्रचलित है। जब लेखक स्वयं अपने जीवन का क्रमिक ब्यौरा प्रस्तुत करता है तो उसे ‘आत्मकथा’ कहा जाता है।
हिंदी साहित्य ज्ञानकोश-1 में कहा गया है-“किसी व्यक्ति के निजी जीवन की झांकी पेश करने वाली विधा को आत्मकथा कहते हैं।”
एनसाइक्लोपीडिया ऑफ लिटरेचर में कहा गया है-“आत्मकथा व्यक्ति के जीवन का विवरण है, जो स्वयं के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। इसमें जीवनी के अन्य प्रकारों से सत्य का अधिकतम समावेश होना चाहिए।”
आत्मकथा में लेखक आत्मान्वेषण और आत्मालोचन करता है। इसलिए इसमें उसका जीवन-दर्शन प्रत्यक्ष रूप में साकार हो उठता है। इसमें लेखक अपने गुणों के साथ दोषों का भी बड़ी बेबाकी से उद्घाटन करता है। इस प्रकार लेखक की आत्मकथा सत्याधारित हो जाती है।
आधुनिक भारतीय भाषाओं में लिखी गई पहली आत्मकथा ‘अर्धकथानक’ है। यह आत्मकथा बनारसीदास जैन द्वारा 1641 ई. में रची गई। यह ब्रजभाषा में पद्य में रचित है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘कुछ आपबीती कुछ जगबीती’ तथा अम्बिकादत्त व्यास ने ‘निजवृत्तांत’ (1901 ई.), स्वामी श्रद्धानंद ने ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ नाम से अपनी आत्मकथा लिखी।
छायावादी युग में हरिभाऊ उपाध्याय ने महात्मा गाँधी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ का अनुवाद किया। सुभाष चंद्र बोस की आत्मकथा ‘तरुण के स्वप्न’ भी अनूदित होकर प्रकाशित हुई। प्रेमचंद ने ‘हंस’ पत्रिका का ‘आत्मकथा’अंक निकालकर इस विधा को आगे बढ़ाया।
छायावादोत्तर काल में ‘मेरी आत्मकहनी'(श्यामसुंदर दस, 1941 ई.), ‘आत्मकथा’ (राजेंद्र प्रसाद, 1947 ई.), ‘मेरी असफलताएं’ (बाबू गुलाबराय, 1941 ई.), ‘मेरी जीवन यात्रा’ (राहुल सांकृत्यायन, 1946 ई.), ‘सिंहावलोकन'(यशपाल, 1955 ई.), ‘अपनी खबर’ (पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, 1960 ई.) और हरिवंश राय बच्चन की चार भागों में-‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ (1969 ई.), ‘नीड़ का निर्माण फिर’ (1970 ई.), ‘बसेरे से दूर’ (1977 ई.), ‘दस द्वार से सोपान तक’ (1985 ई.) विशेष रूप से उल्लेखनीय आत्मकथाएँ मानी जाती हैं।
दलित आत्मकथाओं ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। दलित विमर्श की सर्वाधिक सशक्त अभिव्यक्ति आत्मकथा विधा में देखने को मिलती है। दलित आत्मकथा लेखन की शुरुआत मराठी भाषा से हुई है। दया पवार की आत्मकथा ‘अछूत’ (1980 ई.), शरण कुमार लिंबाले की ‘अक्करमाशी’ ( 1991 ई.) प्रमुख मराठी दलित आत्मकथाएं हैं।
हिंदी में लिखी गई पहली दलित आत्मकथा मोहन दास नैमिशराय की ‘अपने-अपने पिंजरे’ (1995 ई.) है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’ (1997 ई.), सूरजपाल चौहान की ‘तिरस्कृत’ (2002 ई.), कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’ (1999 ई.), सुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’ (2011 ई.), तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’ (2012 ई.) और ‘मणिकर्णिका'( 2018 ई.) चर्चित दलित आत्मकथाएं हैं।
दलित लेखकों ने अपनी आत्मकथाओं में सदियों से शोषित, दमित अपने दर्द, क्षोभ और व्यथा को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से व्यक्त किया है।
स्त्रियों की आत्मकथाओं में प्रभा खेतान की ‘अन्या से अनन्या’, कृष्णा अग्निहोत्री की ‘लगता नहीं दिल मेरा’, मन्नू भंडारी की ‘एक कहानी यह भी’ और मैत्रेयी पुष्पा की ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ विशेष चर्चित हैं।
आभार ग्रंथ-
- शंभूनाथ (सं.), हिंदी साहित्य ज्ञानकोश-1
- डॉ. अमरनाथ, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली